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Saundarya Ka Aashcharyalok | Savita Singh

2:29
 
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सौंदर्य का आश्चर्यलोक | सविता सिंह

बचपन में घंटों माँ को निहारा करती थी

मुझे वह बेहद सुंदर लगती थी

उसके हाथ कोमल गुलाबी फूलों की तरह थे

पाँव ख़रगोश के पाँव जैसे

उसकी आँखें सदा सपनों से सराबोर दिखतीं

उसके लंबे काले बाल हर पल उलझाए रखते मुझे

याद है सबसे ज़्यादा मैं उसके बालों से ही खेला करती थी

उसे गूँथती फिर खोलती थी

जब माँ नहा-धोकर तैयार होती

साड़ी बाँधती

मेरे लिए वह विश्व का सुंदरतम दृश्य होता

जिसके रंगों और ख़ुशबुओं में मैं यूँ खो जाती

जैसे कोई एलिस आश्चर्यलोक में

जब मैं थोड़ी बड़ी हुई

मुझे अपनी बड़ी बहन दुनिया की सबसे सुंदर

लड़की लगने लगी

उसकी लगभग सोने जैसी देह

अपनी दमक से संसार को भरती

उसे भी मैं घंटों देखती जब वह तैयार होती

नहा-धोकर लगभग माँ की तरह ही

अपने लंबे बालों को सुखाती सँवारती बाँधती

उसकी आँखें माँ की आँखों से भी ज़्यादा

स्वप्निल दिखतीं

अब मुझे अपनी बेटियाँ इतनी सुंदर लगती हैं

कि मैं उनके पाँवों को चूमती रहती हूँ

मन ही मन ख़ुश होती हूँ

कि एक स्त्री हूँ

और घिरी हूँ इतने सौंदर्य से।

  continue reading

632 ตอน

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बचपन में घंटों माँ को निहारा करती थी

मुझे वह बेहद सुंदर लगती थी

उसके हाथ कोमल गुलाबी फूलों की तरह थे

पाँव ख़रगोश के पाँव जैसे

उसकी आँखें सदा सपनों से सराबोर दिखतीं

उसके लंबे काले बाल हर पल उलझाए रखते मुझे

याद है सबसे ज़्यादा मैं उसके बालों से ही खेला करती थी

उसे गूँथती फिर खोलती थी

जब माँ नहा-धोकर तैयार होती

साड़ी बाँधती

मेरे लिए वह विश्व का सुंदरतम दृश्य होता

जिसके रंगों और ख़ुशबुओं में मैं यूँ खो जाती

जैसे कोई एलिस आश्चर्यलोक में

जब मैं थोड़ी बड़ी हुई

मुझे अपनी बड़ी बहन दुनिया की सबसे सुंदर

लड़की लगने लगी

उसकी लगभग सोने जैसी देह

अपनी दमक से संसार को भरती

उसे भी मैं घंटों देखती जब वह तैयार होती

नहा-धोकर लगभग माँ की तरह ही

अपने लंबे बालों को सुखाती सँवारती बाँधती

उसकी आँखें माँ की आँखों से भी ज़्यादा

स्वप्निल दिखतीं

अब मुझे अपनी बेटियाँ इतनी सुंदर लगती हैं

कि मैं उनके पाँवों को चूमती रहती हूँ

मन ही मन ख़ुश होती हूँ

कि एक स्त्री हूँ

और घिरी हूँ इतने सौंदर्य से।

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