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Baarish Mein Joote Ke Bina Nikalta Hun Ghar Se | Shahanshah Alam

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बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से | शहंशाह आलम

बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से

बचपन में हम सब कितनी दफ़ा निकल जाते थे

घर से नंगे पाँव बारिश के पानी में छपाछप करने

उन दिनों हम कवि नहीं हुआ करते थे

ख़ालिस बच्चे हुआ करते थे नए पत्ते के जैसे

बारिश में बिना जूते के निकलना

अपने बचपन को याद करना है

इस निकलने में फ़र्क़ इतना भर है

कि माँ की आवाज़ें नहीं आतीं पीछे से

सच यही है माँ की मीठी आवाज़ें पीछा कहाँ छोड़ती हैं

दिन बारिश के हों, दिन धूप के हों या दिन बर्फ़ के हों

माँ की आवाज़ों को पकड़े-पकड़े मैं घर से दूर चला आया हूँ

अब बारिश की आवाज़ें माँ की आवाज़ें हैं

बाँस के पेड़ों से भरे हुए इस वन में मेरे लिए।

  continue reading

587 ตอน

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बारिश में जूते के बिना निकलता हूँ घर से

बचपन में हम सब कितनी दफ़ा निकल जाते थे

घर से नंगे पाँव बारिश के पानी में छपाछप करने

उन दिनों हम कवि नहीं हुआ करते थे

ख़ालिस बच्चे हुआ करते थे नए पत्ते के जैसे

बारिश में बिना जूते के निकलना

अपने बचपन को याद करना है

इस निकलने में फ़र्क़ इतना भर है

कि माँ की आवाज़ें नहीं आतीं पीछे से

सच यही है माँ की मीठी आवाज़ें पीछा कहाँ छोड़ती हैं

दिन बारिश के हों, दिन धूप के हों या दिन बर्फ़ के हों

माँ की आवाज़ों को पकड़े-पकड़े मैं घर से दूर चला आया हूँ

अब बारिश की आवाज़ें माँ की आवाज़ें हैं

बाँस के पेड़ों से भरे हुए इस वन में मेरे लिए।

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